विकलाँग

| लेखक- मोहित अग्रवाल |

आह! कितना चुभता है न, ये शब्द विकलाँग, जाने क्यों ये शब्द मुझे हर बार अपने बेचारगी और बेबसी का अहसास करा जाता है । जाने क्यों ये शब्द मुझे हर बार एक लाचारी का अहसास करा जाता है, किसने बनाया ये शब्द? हमने! हाँ हमने और आपने ही तो बनाया ये शब्द जो हर बार बोले जाने पर जाने अनजाने ही सही, कितने ही स्वाभिमानी मित्रों के मान का हनन करता है और जाने कितनी ही बार सहस्रों बहनों का चीरहरण करता है ये शब्द।

इस एक शब्द से यूँ लगता है मानो हम वो हैं जो कहीं न कहीं अधूरे हैं, बेचारगी का द्योतक ये शब्द ही तो कमजोर बनाता है उस मजबूत इंसान को जो चाहे तो क्या नहीं कर सकता ।

क्या कभी शब्दों में वर्णित किया जा सकता है वो एहसास जब भीड़ में कहीं से कोई आवाज आती है “हट जाओ यार जाने दो, जगह दो भाई, विकलांग है”…जाने क्यों एक शर्म का सा अहसास सारे शरीर में यूँ कौंध जाता है कि हर निगाह जैसे यूँ देख रही होती है जैसे कोई बड़ा अपराध करके कोई अपराधी सबके ध्यान का केंद्र बिंदु बन गया हो।

माना इसमें किसी का कोई दोष नहीं क्योंकि जो आपकी सहायता करते हैं, आपके लिए जगह बनाते हैं, आपको रास्ता देते हैं, आपकी मदद करते हैं, वो निश्चय ही अपनी मानवता एवं कर्तव्यपराणयता का ही परिचय दे रहे होते हैं, फिर किसी से कोई भी शिकायत क्यों, शिकायत उनसे नहीं, शिकायत तो उस एक शब्द से है जो अकारण ही हर बार, बार-बार मुझे यूँ ही मेरे अधूरेपन का एहसास कराता है।

सच कहूँ तो क्या होता है विकलांग? कुछ नहीं होता विकलांग और कुछ नहीं होती तन की विकलांगता क्योंकि तन की अक्षमता से बड़ी तो मन की अक्षमता है, सच ही कहा है किसी ने मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।

जो मन से ही हार गया मेरी नजरों मे तो सही मायनों में वो ही है असली ……..।


7 thoughts on “विकलाँग

  1. आपके विचारों से मैं सहमत भी हूँ और प्रेरित भी।। धन्यवाद आपका 🙏🏻

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  2. मोहित आप पूरे समाज के लिए प्रेरणादायक हो, ऐसे ही ऊर्जावान रहो, ऐसे ही अपने लेखन से समाज को दिशा देते रहो

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